बुधवार, 20 जुलाई 2011
शुक्रवार, 28 मई 2010
उसने कहीं दूर किसी ओवर फ्लाई की ओर इशारा करते बताया कि उसकी छाया में झोपड़ी तान रखी है। वह अपने घर गांव के बारे में बताने लगी-
पहले जब वह छोटी थी तब इस महानगर से सटे गांव में रहती थी। बहुत छोटी थी तब ही उसकी मां गुजर गई। पिता ने उसकी शादी दल्ला के पिता से करा दी। शादी के समय उसकी उम्र नौ-दस साल थी। शादी के बाद काम की तलाश उन्हें इस महानगर में खींच लायी। गांव में खेती जमीन थी। पर सारी जमीन महाजन खा गया। पैसा लिया था उससे खेत गिरवी रखकर। जब खेत न रहे तो वह इस महानगर में चले आये। बहुत भटके। फाके भी रहे। पर धीरे धीरे गुजारा होने लगा। कभी आधे पेट भोजन मिला तो कभी दूसरो के आगे हाथ भी फैलाना पड़ा। तीन बच्चों में दल्ला सबसे छोटा है मेडमजी, चाहूं कि यह पढ़लिख जाय।
- चाहती हो तो पढ़ने भेज दो।
-आप ही कहीं कोशिश करो। ये स्कूल जाने लगे तो मैं आपका बड़ा अहसान मानूं दीदीजी।
उसने अपनी साड़ी का पल्लू आंखों से लगाते हुए कहा।
-इसकी उम्र कितनी है?
-ग्यारह बारह का हो गया होगा।
-अक्षर वगैरह लिख लेता है?
दल्लू · ऐ! दल्लू · · मां ने पुकारा तो दल्ला झूला छोड़ इधर चला आया।
-हाथ जोड़ मेडमजी को।
मां के कहने पर उसने अभिवादन किया। बता मेडमजी क्या पूछे है? जो पूछे उसका जवाब दे।
‘‘अक्षर वगैर लिख लेते हो?’’ मैंने प्रश्न दोहराया। वह मुंह ताकता कुछ देर खड़ा रहा। फिर ‘ना’ में गर्दन हिला दी।
ए.बी.सी.डी...एक दो तीन चार कुछ तो आता होगा। मेरे पूछने पर उसकी गर्दन फिर ना में हिल गई।
ओह! मेरे मुंह से निकल पड़ा। मैं सोच में पड़ गई । इसकी उम्र इतनी छोटी भी नहीं की इसे कहीं पहली क्लास में दाखिला मिले। मुझे सोचता देख वह बोल उठी -
‘‘मेडमजी आपका बड़ा उपकार होगा। यह थोड़ा पढ़लिख जाय तो कम से कम इंसान बन जायेगा। इसके बाप के साथ हमारा जीवन भी कूड़ा उठाते गुजर गया पर ये तो... ये काम ना करें। पर पढ़ेगा तो ही छुटकारा होगा।’’
‘‘बात तो तुम्हारी ठीक है पढ़ेगा तो ही सच्चे मायने में इंसान बनेगा।
‘‘पढ़ाई कर ले तो कहीं बही खाता लिखने का काम मिल सके है मेडमजी?’’ उसने आशा से मुझे देखा।
‘‘हां हां क्यों नहीं। पढ़ेगा तो बही खाता लिखने का क्या इससे भी ऊंचा काम कर सके है।’’
‘‘बस यहीं चाहू हूं मेडमजी। जरा लायक आदमी बन जाय। पहली दो तो लड़कियां थी सो चल गया। नहीं पढ़ी तो भी शादी कर दी और वो ससुराल चली गई। पर ये तो लड़का है। पढ़ेगा तो....कहीं अच्छे से काम करने लगे....।
‘‘वो तो ठीक है दल्ला की मां....’’
‘‘मेडम जी हूं तो लच्छू की घरवाली, पर जिसे देखो वहीं मुझे दल्ले की मां कहकर ही पुकारे है।’’ अपने बेटे को प्यार से सहलाते वह गर्वित भाव से बोली। मैं भी हैरान हुई उसे देखती रह गई। पहचान भी दे रही है पर अपने नाम से नहीं। मेरी तंद्रा भंग करते हुए वह बोली-
‘‘इसके बाप को भी बड़ा चाव है दल्ला पढ़े। उसने तो एक साहब से भी बात की इसके लिए। वो इसे पेट्रोल पम्प पर नौकरी लगवा देगा। बस थोड़ा हिसाब किताब करना सीख लो तो मेरा दल्ला पम्प पे काम करा करें। टोपी और वर्दी में सजा हुआ।
मैं देखा कोई स्वप्न संसार उसकी आंखों में फैलता हुआ चेहरे पर पसर गया। आशा भरा सुख उसकी आवाज में घुल आया।
‘‘मेडमजी...’’
‘‘ठीक है।’’ मैंने स्वीकारा। दल्ला को मैं पढ़ाऊंगी।’’
वो खिल उठी। दल्ला पास में खड़ा इस सबसे बेखर उदासीन सा इधर उधर ताक रहा था। कॉम्पलेक्स की आवाजाही बढ़ गई थी। मैंने घड़ी पर नजर डाली। पूरा एक घंटा व्यतीत हो चुका था। मैंने उठते हुए कहा-
‘‘ उधर आश्रम रोड के उस पार मेरा ऑफीस है। दल्ला को वहां भेज देना। मैं उसे पढ़ाऊंगी। पहले थोड़ा अक्षरज्ञान हो जाये फिर उसके स्कूल की बात तय होगी। इस उम्र में अब उसे कोई भी पहली क्लास में लेने को तैयार नहीं होगा। पहले उसे कुछ पढ़ना लिखना सीखना होगा। उसने भी स्वीकार लिया कि वह कल से उसे मेरे पास भेज देगी पढ़ने के लिए।
‘‘हां जरा साफ सुथरा आना पढ़ने के लिए। नहाकर- मैंने उसे हिदायत दी। कॉपी पेंसिल किताब तो मैं ला दूंगी।’’ कहकर मैं चलने को हुई। वह बहुत खुश थी। मेरे पीछे-पीछे मेरा अनुसरण करने लगी।
‘‘कल बारह बजे।’’ मैंने कहां। ‘‘और हां अब से दल्ला नहीं इसका नाम होगा- ‘‘दलीचंद’’।
एक सपना जो अभी दल्ले की मां की आंखों में तैर रहा था। उसका एक रेशा मेरी आंखों में भी समा गया। ‘एक अच्छा काम। एक नेक काम होगा मुझसे। अगर इसे पढ़ा सकी तो एक जीवन संवर जायेगा।’ आनंद से भरा मन खुशी देने लगा। इस स्वपनजाल को लिए मैं लिफ्ट में बंद हो ऊपर चली आयी ।
अगली पोस्ट में - रंगो के साथी
शुक्रवार, 7 मई 2010
दलीचन्द
‘दूसरो का कूड़ा ढ़ोओ, बुहारो, गन्दे रहो और भोजन बासी पाओ।’ मेरा मन अजीब सी दुविधा से घिर आता। ‘मैं दिया करूंगी ताजा खाना। शाम को थोड़ा खाना ज्यादा बना लिया करूंगी। थोड़ा उनके लिए भी बनाऊंगी। ये भी गर्म खाने का स्वाद चखे।’
द्वार की घंटी बजी। मैंने दरवाजा खोला। देखा वहीं मां बेटे। वही बर्तन। वहीं बाडू की पुकार। मैं जैसे इसी इंतजार में बैठी थी। गई और फटाफट खाना ले आई। क्योंकि मैंने बनाया था थोड़ा अधिक। अलग से निकाल भी था उनके लिए। मैं गर्म खाना ले आयी तो उसने बर्तन आगे बढ़ा दिया। बर्तन में पहले से खाना भरा हुआ था। मेरे हाथ रूक गये -
‘‘क्या दूसरा बर्तन नहीं है तुम्हारे पास। यह गर्म खाना है।’’ पहली बार उनसे संवाद स्थापित करते हुए मैंने कहा। वो कुछ अचकचाया। उसकी मां बोली - ‘‘दीदी इसी में डाल दीजिये।’’
‘‘कल दूसरा बर्तन ले आना गर्म खाने के लिए।’’ मैंने उसे हिदायत देते हुए कहा।
दूसरी शाम वह फिर आये थे बाडू लेने। नित्यकर्म की भांति। अलग बर्तन तो नहीं थे उनके पास। दल्ला ने जेब से मुड़ी-तुड़ी पॉलीथीन थैली निकाली। वह उसे आगे बढ़ाकर बोला - ‘‘मासी गर्म खाना इसमें डाल दीजिये।’’
‘‘ओह! थैली। पॉलीथीन तो नुक्सान करता है।’’
वह चुप। मुझे उपाय सूझा।
‘‘ठहरो’’ मुझे याद आया मेरे पास पुराना टिफिन है। मैंने उसमें भर कर खाना दे दिया। उसके चेहरे पर खुशी के भाव देख मेरा मन प्रसन्नता से भर आया।
अब जब भी मैं काम पर जा रही होती या किसी काम से वापस लौट रही होती उनसे नजरे मिल जाती तो दोनों मां बेटे मुस्कुरा उठते। आते जाते नमस्ते भी करने लगे। मुझे भी अच्छा लगता। अपरिचय के केन्द्र में एक छोटासा परिचय। इस विशाल कॉम्पलेक्स में कोई तो है जो मुझे पहचान रहा है। कितना अजनबीपन पसरा हुआ है यहां।
ये महानगर की अपनी जीवनशैली है शायद। मैं किसी को आपस में बात करते हुए नहीं देखती। सब अपने हाल में मस्त। अपने हिसाब से व्यस्त। कोई किसी से कुछ नहीं पूछता। कोई कुछ नहीं कहता। बस चारों ओर लोगो की भीड़। हजूम का हजूम है। या फिर रेला है। कहां से आ रहा है और कहा समाता जा रहा है। मरूधरा के रेतीले धोरे की तरह। बस फर्क इतना कि वहा बालू है और यहां मानव। इस भीड़ में यह अकेलापन और अजनबीपन। कभी-कभी मन में डर या झिझक भी पैदा करता।
मैं एक कस्बाई क्षेत्र से हूं। जहां का माहौल यहां से बिल्कुल परे है। वहां हर कोई हर किसी को पहचानता है। रास्ते में मिल जाने पर अभिवादन के साथ लगे हाथ कुशलक्षेम भी पूछ ली जाती है। वहां भी लोग मंदिर जाते है और यहां भी। कितना अंदर है यहां और वहां के परिवेश में। वहां के मंदिर पूजा अर्चना और आध्यात्म के साथ सूचना आदान प्रदान के केन्द्र होते है। जहां तमाम प्रकार की सूचना मिल जाती है। जन्म, मृत्यु और परिणय की। कहां किसके यहां जन्म हुआ है और किसकी मौत हुई। किसका विवाह है और किसका संबंध तय हुआ है। बड़ी बातांे से लकर छोटी मोटी बातों तक। पशु पक्षी से लेकर पेड़ पौधे तक। बस्ती वालों से लेकर पूरे नगर तक। अमीर से लेकर गरीब तक। हर किसी को हर किसी में दिलचस्पी कहीं कोई बेगाना नहीं।
ये महानगर कैसे बसे होंगे? गांव-नगर के लोगों ने ही तो मिलकर बसाया होगा इसे। बाद में देश के कोने कोने से आये होंगे रोजी रोटी की तलाश में। और फिर सब यहीं बस गये। विभिन्न समुदाय, भिन्न खानपीन, वेशभूषा, भाषा और संस्Ñति। आचार-विचार सबकुछ अलग-थलग। कितना दिलचस्प है।
मैं सोचती - ‘एक दूसरे के बारे में जानने की कितनी उत्सुकता होती होगी। मेरे कस्बे में तो यहीं होता है। कोई भी नया व्यक्ति आ जाय। पंचायत आ जुड़ती है। उसे कभी अनजानापन तो लगता ही नहीं। देर सवेर वे उसे अपना बना ही लेंगे।’
जब से मैं यहां आयी हूं मेरी कस्बाई सोच और यहां यह महानगर, दोनों में घमासान मचा रहता।
छुट्टी का दिन था। मुझे ऑफीस नहीं जाना था। देर से उठी तो सारे काम ही देर से शुरू हुए। चाय के कप के साथ ताजा अखबार लिए मैं बालकनी में आ बैठी। बालकनी से नीचे गार्डन की ओर नजर गई। देखा, दल्ला झूला झूल रहा था। कॉम्पलेक्स में यह बच्चों का गार्डन था। जिसका पूरा परिदृश्य मेरी बालकनी से नजर आता था। गार्डन में झूले के साथ कई चढ़ने-उतरने-फिसलने व संतुलन साधने जैसे खेल उपकरण लगे हुए थे। इन्हें देख मुझे अपना बचपन याद हो आता। मेरी चाय खत्म हो चुकी थी और अखबार भी मैं टटोल चुकी थी। इच्छा हुई नीचे गार्डन में जाऊं। वहां कुनकुनी धूप खिली हुई थी। गुलाबी ठण्ड में सुबह की धूप का आनंद लेने के लिए मैंने फ्लैट को लॉक किया और लिफ्ट से नीचे चली आयी।
देखा दल्ला अब फिसलपट्टी पर चढ़ा हुआ था। फिसलने के लिए। उसकी मां परिसर बुहार रही थी। सामने लगी गार्डन की बेंच पर मैं जाकर बैठ गई। पूरा परिसर शान्त छुट्टीमय था। हर रोज की हलचल इन लम्बे टॉवरों में दुबकी निद्रामग्न थी। मैंने दृष्टि घुमाई, चारों ओर ऊंचे ऊंचे टॉवर। जिनमें अनगिनत फ्लैट। फ्लैट में कितनी बालकनी और बालकनी में सूखते टंगे हुए असंख्य कपड़े।
‘कितने लोग रहते होंगे यहां? कितने परिवार होंगे? कितने बच्चे होंगे? एक के बाद एक प्रश्न कौंध रहे थे मन में। इस पूरे कॉम्पलेक्स में तो मेरा पूरा गांव समा जाय। क्या हो जब वे सब एक जगह, एक छत के नीचे हो तो ? आपस में बतियाने में शायद खानापीना ही भूल जाय। तंद्रा में खोये हुए कई विचार आ जा रहे थे।
‘‘नमस्ते मेडमजी। कैसी है?’’
‘‘अच्छी हूं।’’
बात का सिलसिला खत्म हो चुका होता अगर वह वहां मेरे पास आकर दूब पर नहीं बैठ गई होती।
‘‘कहां रहती हो?‘‘ मैंने बात के क्रम को आगे बढ़ाया।
-शेष अगली पोस्ट में
बुधवार, 5 मई 2010
उड़ान

महानगर
---भागती दौड़ती जिन्दगी यहां की न रूकती है न कभी थकती और न ही कभी ठहर कर देखती है। लक्ष्मी पुत्रों की रमणीय स्थली बने ये महानगर दिन दूनी और रात चौगुनी रफ्तार से बढ़ते जा रहे है। गांव, नगर, कस्बे सबकुछ इसमें समाहित होते जा रहे है।
---हमारा बहुत कुछ बदल कर रख दिया है इन महानगरों ने। आदमी, आदमी ना रहा गोया मशीन का पुर्जा हो गया। शोर और रफ्तार के बीच दम तोड़ता बचपन आज भी यहां का शा्श्वत सत्य है। बचपन रीतता गया और तरूणाई लुट गई। कभी न खत्म होने वाली यह दास्तान महानगर की छाती पर पड़े फफोले की भांति आज भी दर्द से टीसती है।
---अगर सत्य कहीं छिपा है इस महानगर में तो ठीक उसी तरह, जिस तरह नारियल के खोल के भीतर का पानी। आज भी.....उसी तरह.....जिस तरह.....बचा है आदमी के आंख का पानी। कहीं अनकहीं, गढ़ीं अनगढ़ीं दास्ताओं के बीच की है ये कहानी -
अभी मैं यहां नई-नई थी। अड़ौस पड़ौस किसी को इतना पहचानती नहीं थी। अपने पास वाले फ्लैट में कौन रहता है? यह भी मुझे मालूम नहीं था।
ठीक सामने आश्रम रोड के उस पार मेरा ऑफीस था। ऑफीस पहुंचने के लिए मुझे नौ बजे घर से निकलना होता था।
जब मैं अपने फ्लैट को बंद कर रही होती तो अक्सर एक बच्चा अपनी मां के साथ कूड़ा उठाता नजर आ जाता। (उसे बच्चा कहना भी गलत होगा। वह किशोरवय पकड़ चुका था। बारह तेरह साल के आसपास उसकी उम्र होगी। और इस उम्र के बालक को किशोर कहते है)
उसकी मां उसे ‘दल्ला’ कहकर पुकारती थी। जब मैं ऑफीस जाने के लिए फ्लैट से निकल रही होती थी तब दल्ला कचरे का बड़ासा डिब्बा उठाये.....
उठाये कहना भी गलत होगा क्योंकि वह उसे सीढ़ियों से घसीटता हुआ नीचे उतारता था। घसीटने से पैदा होने वाला शोर बड़ा कर्कश और कान फोड़ू होता। और वह इस सबसे बेखबर हर सीढ़ी से डिब्बा कूदाता, घसीटता हर माले पर रूकता। जहां से डोर बेल बजा बजाकर हर फ्लैट का कचरा जमा करता जाता।
नाटे कद का, मैले कपड़े पहने स्याह वर्ण वाला दल्ला, कई दिनों का बिना नहाया हुआ अपनी मां के साथ काम में लगा हुआ नजर आता। उसकी मां भी उस जैसे गंदे और फटे वस्त्रों में कभी केम्पस के लम्बे चौड़े परिसर को बुहारती नजर आती थी। तो कभी कॉम्पलेक्स के बाहर बने ‘टी स्टॉल’ पर मां-बेटे चाय सुड़कते नजर आते। वे मुझे और मैं उन्हें पहचानने लगी थी।
शनिवार, 5 दिसंबर 2009
अण्डों की चोरी

ईल्ली के कीटाणुओं ने अपनी आबादी कई गुना बढ़ा ली थी। हर जगह उनकी कोलॉनियां बस चुकी थी। अपना फलता फूलता व्यापार देख नानी और ईल्ली बहुत खुश और संतुष्ट थी।
काम की अधिकता से नन्ही ईल्ली थक जाती थी। एक दिन जब वह थकी हुई आराम कुर्सी पर बैठी विश्राम कर रही थी तो उसे नानी ने याद दिलाया, ‘‘मेरे अण्डों का क्या हुआ ईल्ली’’ जाकर जरा देख तो आओ अब तक तो अण्डों से वयस्क मक्खियां बन चुकी होंगी। हमें भी अपने काम में मददगारों की आवश्यकता है।’’
‘‘हां नानी, ठीक याद दिलाया। अभी जाती हूं’’ कहती हुई ईल्ली ने गौशाला की ओर उड़ान भरी।
गौशाला में ईल्ली को एक भी मक्खी नजर नहीं आयी। उसे आश्चर्य हुआ। कि नानी के सौ-डेढ़ सौ अण्डों में से क्या एक भी मक्खी नहीं बन पायी। उसने अडौस-पड़ौस में पूछताछ शुरू करी साथी कीट पंतगों से पूछा तभी एक चींटे ने ईल्ली को बताया कि उसने कुछ दिन पूर्व दीमकों के तुंड सैनिको को देखा था जो बोरों में भर कर अण्डे ले जा रहे थे। हो सकता है वो अण्डे तुम्हारे ही हो। अजीब किस्म के जीव हो तुम अण्डे देने के बाद तुमने उन्हें संभाला तक नहीं चींटे ने बुरा सा मुंह बनाया और आगे बढ़ गया। नन्ही ईल्ली परेशान। उड़ती-दौड़ती चींटे के पास पहुंची-
‘‘चींटेराम, चींटेराम उन तुंड सैनिको का कुछ पता ठिकाना तो बता दो। हाय! कहां ले गये वो हमारे अण्डे।
‘‘तुम जैसी लापरवाह प्रजाति का यही हाल होता है।’’
‘‘नहीं-नहीं ऐसा मत कहो चींटेराम, कृपया मुझे दीमकों का पता बता दो। मैं उन्हें ढूंढ लूंगी।’’
‘‘वह दूर उस पेड़ पर उठे हुए टीले को देख रही हो न।’’ चींटे ने केवल इतना ही इशारा किया और आगे बढ़ गया। चींटा तो स्वभाव से ही मनमौजी था। किसी से अधिक बातचीत करना उसे पसन्द नहीं था।
नन्ही ईल्ली पेड़ के इर्द गिर्द भिनभिनाने लगी। ‘बाबा रे! यहां से वापस अण्डे लेना बहुत मुश्किल है। यह तो दीमकों का किला है। पूरा का पूरा भूमिगत, जमीन के नीचे गहराई तक फैला हुआ। जिसकी प्रत्येक सुरंग के द्वार पर रखवाली करते हुए बड़े सिर और बड़े शरीर वाले चौकन्ने पहरेदार। अब क्या किया जाय।’ वह सोचने लगी।
काफी देर सोचने के बाद भी उसे कोई उपाय नहीं सूझा। निराश हो वह लौट पड़ी। मन की निराशा के कारण उसे थकान महसूस होने लगी वह सुस्ताने के लिए पेड़ के नीचे छाया में बैठ गयी।
परेशान ईल्ली गुनगुनाने लगी।
ओ प्रकृति की रानी
सुन ले मेरी कहानी
मैं हूं एक नन्ही मुन्नी
राह बहुत मुश्किल है
काम कठिन है
हिम्मत कम है
अब तू ही बता
कैसे खुश होगी मेरी नानी
तभी उसके स्वर में स्वर मिलाता उसे
बांसुरी का स्वर सुनायी दिया वह चौंक पड़ी, ‘‘कितना अदभुत स्वर है। कौन है यह बांसुरी वादक’’ ईल्ली ने देखा ऊपर पेड़ के पत्ते पर बैठा वही चींटराम बांसुरी की मधुर तान छेड़े हुए है।
ईल्ली की आंखे छलछला आयी। उसका गीत गाना बंद हो चुका था। उसे चुप देख चींटेराम ने भी बांसुरी बजानी बंद कर दी।
‘‘अण्डे मिले नन्ही मक्खी।’’
किन्तु ईल्ली मौन थी उसकी सिसकी नीरव वातावरण में गूंज उठी। उसकी पीली घेरदार पोशाक आंसुओं से भीग चुकी थी। उसका यह हाल देख चींटाराम को दया आ गई। वह पेड़ के पत्ते से नीचे उतर आया।
‘‘मैं जानता हूं तुम दीमक के किले तक नहीं पहुंच सकती आओ मेरे पीछे-पीछे आओ।’’ कहता हुआ चींटा बांसुरी बजाता आगे चल पड़ा। ईल्ली उसके पीछे थी।
अगली पोस्ट - दीमक राजा और कैदी ईल्ली
शुक्रवार, 20 नवंबर 2009
एक दुर्घटना

गतांक से आगे -
ईल्ली और नानी बगीचे की ओर जा रही थी। रास्ते में ईल्ली की ट्रक खराब हो गई। नानी आगे निकल चुकी थी इसलिए ईल्ली अकेली रह गई। रास्ता सुनसान था। ईल्ली ने ट्रक को ठीक करने की काफी कोशिश की किन्तु ट्रक चालू नहीं हुआ। अंधेरा छाने लगा था। ईल्ली इधर उधर जगह तलाशने लगी। चिन्ता में डूबी ईल्ली चक्कर काट रही थी कि एक वाहन से टकरा गई और बेहोश होकर नीचे गिर पड़ी।
इत्तफाक से खिता टिड्डे ने ईल्ली को टकराकर, गिरते हुए देख लिया था। वह बेहोश ईल्ली को अपने तम्बू में ले आया।
टिड्डी दल के विशेषज्ञ डॉक्टरों ने ईल्ली का इलाज शुरू कर दिया। उसके पंखों पर सबसे अधिक चोटे आयी थी। डॉक्टरों ने पंखों पर मलहम लगाकर पट्टियां बांध दी।
कुछ देर बाद ईल्ली को होश आया वह कराही, ‘‘मैं कहां हूँ?’’
‘‘सेनानायक खिता को सूचित किया जाय। इस मक्खी को होश आ रहा है’’ डॉक्टर टिड्डे ने नर्स टिड्डी को आदेश दिया और पुन: उपचार में जुट गया।
ईल्ली को होश आ चुका था। उसने अपने आपको टिड्डी डॉक्टरो से धिरा पाया जो उसके पांवों पर पट्टियां बांध रहे थे। उसके अंग प्रत्यंग में दर्द हो रहा था। उसने देखा, ‘‘यह तो ऑपरेशन का कक्ष है। वह यहां कैसे आ गई। उसके बदन में दर्द क्यों है? और उसके पंख . . . . . ’’ तभी सामने सेनानायक खिता को आता देख वह चौंकी -खिता तुम?
‘‘हां ईल्ली मैं खिता। तुम्हारा एक्सीडेन्ट हो गया था और तुम बेहोश होकर गिर पड़ी थी। मैं ही तुम्हें यहां उठा लाया। खिता के कहने के साथ ही ईल्ली को सब याद आने लगा कि कैसे बीच रास्ते उसकी ट्रक खराब हो गई और वह नानी से बिछुड़ गई-
ओह! तो नानी मुझे न पाकर परेशान हो रही होगी। ईल्ली को चिन्ता हुई।
‘‘मैंने तुम्हारी नानी के पास सूचना भिजवा दी है। सुबह तक वह आ जायेगी।’’ खिता ने आगे कहां, ‘‘तुम आराम करो ईल्ली। तुम्हारे पंखों पर सबसे अधिक चोट लगी है। किन्तु तुम धीरज रखो। हमारे कुशल चिकित्सक पंखों का ईलाज करने में बहुत होशियार है। तुम जल्दी ही ठीक होकर उड़ान भरने लगोगी . . . . . ’’
‘‘. . . . .और मेरी सुरीली आवाज?’’ ईल्ली को आशंका हुई कि कहीं चोट के कारण उड़ते समय पंखों से भिनभिनाहट की आवाज न हुई तो।?
‘‘यह ठीक होने पर ही मालूम होगा ईल्ली कि तुम्हारे पंख पहले जैसी सुरीली आवाज में कम्पन कर पाते है या नहीं। वैसे हम पूरी कोशिश में जुटे है कि तुम्हारा मधुर स्वर बना रहे।’’ एक टिड्डे डॉक्टर ने ईल्ली को सांत्वना देते हुए कहा।
‘‘ओह! धन्यवाद डॉक्टर।’’ ईल्ली ने डॉक्टर से कहा फिर वह खिता से कहने लगी। ‘‘मैं तुम्हारी भी आभारी हूँ खिता। सचमुच तुम एक दयालु और नेक टिड्डे हो।’’
टिड्डे डॉक्टरों और नर्स टिड्डियों के सामने एक सुन्दर मक्खी से अपनी प्रशंसा सुन खित टिड्डा फूला नहीं समाया। खुश हो वह गीत गुनगुनाने लगा।
कल होगी एक सुन्दर सुबह
ताजी बहेगी हवाएं
उड़न झूलों पर हवा बैठकर आयेगी
एक सलोनी मक्खी को
संग अपने उड़ा ले जायेगी
उसकी पोशाक का
लाल पीला रंग
दूर आसमान में
पतंग बन
लहर लहर लहरायेगा।
कल होगी एक सुन्दर सुबह इन्द्रधनुष पुल बनायेगा
सतरंगे रंग आसमान में छितरायेगा।
एक सलोनी मक्खी को
संग अपने उठा ले जायेगा
इन्द्रधनुष पर बैठी
ईल्ली रानी
को देख हर कोई ललचायेगा
कल होगी एक सुन्दर सुबह
मधुरम, सुनहरी किरणे
अपने रथ में बिठायेगी
दूर गगन में
हीरे जैसी ईल्ली चमचमायेगी।
कल होगी एक सुन्दर सुबह
ईल्ली रानी पंख फैला उड़ जायेगी।
खिता के मधुर गीत से ईल्ली का दर्द कम होने लगा था। खिता ने मन भरकर गीत गाया। वह इससे बढ़कर भला ईल्ली की और क्या मदद कर सकता था। दर्द बांट ही तो सकता था। हुआ भी यही ईल्ली अपने आपको काफी स्वस्थ महसूस कर रही थी।
‘‘तुम्हें भूख लगी होगी ईल्ली परन्तु हमारे यहां तो सिर्फ हरे पत्ते हीं है खाने के लिए. . .’’ खिता बोला।
‘‘नहीं खिता मैं पत्तों का पर्णहरित नहीं खाती। क्या तुम नहीं जानते कि हम मक्खियों का भोजन अलग तरह का होता है और लेती भी अलग ढंग से है।’’
‘‘मुझे मालूम है ईल्ली तुम केवल तरल रूप में भोजन को चूस सकती हो। परन्तु तुम्हारे लिए अंधेरे में भोजन लाना बहुत मुश्किल है।’’
‘‘ओह खिता! फिर तो मुझे भूख के मारे नींद नहीं आयेगी।’’ ईल्ली की बात सुन खिता को अफसोस हुआ। परन्तु किया क्या जा सकता था। अब जैसे तैसे रात तो गुजारनी ही थी। खिता रात गुजारने के लिए ईल्ली को अपनी यात्राओं के रोचक वर्णन सुनाने लगा।
कहानी खिता की
ईल्ली तुम्हें मालूम है हम अफ्रीका के रहने वाले है। भोजन की खोज में हमारे विशाल दल दूर-दर तक निकल जाते हैं।
‘‘तुम्हारें दल में कितनी टिड्डियां है खिता?’’ ईल्ली ने पूछा।
‘‘हमारी गिनती का हिसाब अलग तरह से होता है ईल्ली। एक वर्ग किलोमीटर में करीबन पांच करोड़ टिड्डियां होती है। हमारे दल के विस्तार का अब तुम ही अनुमान लगा लो। हमारा दल एक सौ पचास वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है। दिन में जब हम एक साथ उड़ती है तो सूरज भी छिप जाता है। एक बार लाल सागर पार करते समय हमारा दल पांच हजार वर्ग किलोमीटर तक फैल गया था।
इसी बात से तुम हमारे द्वारा हरी वनस्पति खाने की ताकत का पता लगा सकती हो। हम जहां भी आक्रमण करते है वहां की खड़ी की खड़ी फसल समूल नष्ट हो जाती है। एक पत्ता तक नहीं बचता। अकाल की स्थिति बन जाती है।
ओह! तुम्हारा टिड्डी दल तो बहुत ताकतवर है खिता। इस हिसाब से तुम प्रतिदिन कितनी ताजी वनस्पति खा जाते हो?
हम लोग करीबन 100 टन वनस्पति का भक्षण एक दिन में कर डालते हैं।
आश्चर्यजनक खिता आश्चर्यजनक। तुम लोग बहुत खाते हो।
हाँ ईल्ली हमें परिश्रम भी तो बहुत करना पड़ता है। हम बिना रूके लगातार पंद्रह से सत्रह घंटे तक उड़ सकते है। एक हजार किलोमीटर से लेकर पन्द्रह हजार किलोमीटर तक की दूरी तय करना हमारे लिए दुष्कर कार्यं नहीं है। विस्मय से गिरी ईल्ली को खिता आगे बताने लगा-
एक बार की बात सुनाई ईल्ली हमारे दल ने अफ्रीका के तट से अटलांटिक महासागर के लिए उड़ान भी। तब मैं सेनानायक नहीं था। नया-नया ही उड़ना सीखा था धीरे उड़ने के कारण मैं और मेरे जैसे कुछ साथी हमारे दल से पीछे छूट गये और रास्ता भटक गये।
‘‘तब?’’ ईल्ली ने उत्सुकता से पूछा।
तब क्या करते। मैंने उस समय सबका नेतृत्व किया। कुछ दूर उड़ने के बाद हमें एक जलयान नजर आया। वहां अपने साथियों सहित उतर कर विश्राम किया।
उस जलयान के रोचक संस्मरण तुम सुनोगी तो दंग रह जायेगी।
‘‘प्लीज खिता सुनाओं न! मुझे बहादुरी से भरे किस्से बहुत पसन्द हैं। मैं बहादुरों का न केवल आदर करती हूँ बल्कि उन्हें प्यार भी करती हूँ।
हां तो ईल्ली सुनो उस विराट जलयान में खाने के नाम पर हरी वनस्पति का एक पत्ता भी नहीं था। ऐसे में हमारे साथ थी एक मादा टिड्डी। उसे अण्डे देने थे। इसके लिए हमें वहां एक-डेढ़ महीना बिना भोजन के ठहरना पड़ा।
शायद तुम्हें मालूम नहीं हमारी जाति की मादा टिड्डी एक बार में अस्सी से लेकर 150 तक अंडे देती है। जिनसे लगभग पन्द्रह दिन बाद बच्चे निकल आते है जिन्हें हम फुदक कहते हैं।
फुदक! फुदक क्यों खिता?
क्योंकि बच्चे उड़ नहीं सकते। तीन सप्ताह बाद जब वह बड़े हो जाते है तब ही उन्हें उड़ना आता है। इससे पहले वह सिर्फ फुदकते रहते है अत: हम लोग उन्हें प्यार से फुदक ही कहते है।
ईल्ली हंसने लगी।
‘‘बड़ा अच्छा लगता है सुनने में बच्चों का नाम ‘फुदक’ ‘फुदक’ ‘फुदक’ दो तीन बार कहती हुई ईल्ली फिर हंस दी।
ईल्ली को हंसता देख खिता टिड्डा खिलखिला पड़ा। दुर्घटना ग्रस्त ईल्ली का मन बहला कर खिता को खुशी हो रही थी। इस तरह की बातों से कभी आश्चर्य तो कभी हंसते हुए पूरी रात गुजर गई।
सूरज की पहली किरण ने उनके तम्बू को छुआ। सुबह के उजाले को देख ईल्ली के हाथ पांवों में हरकत होने लगी। उनकी अकड़न खुलने लगी थी। दोनों हाथों को ऊपर किए आलस तोड़ती हुई ईल्ली खिता से बोली-
तुममें अच्छे मित्र के सभी गुण है खिता। दर्द और भूख के दौरान तुमने पूरी रात मुझे रोचक संस्मरण सुनाकर आसान कर दी। तुमने मेरी काफी मदद की खिता। तुम्हारा अहसान में कभी नहीं भूलूंगी। मैं अपनी डायरी में तुम्हारे रोचक संस्मरणों को जरूर लिखूंगी।
टिड्डी डॉक्टरों ने ईल्ली ने पंखों पर बंधी पट्टियां खोल दी ईल्ली ने पंख फड़फड़ाये। वह उड़ने के लायक हो चुके थे। बाहर नानी भी उसे लेने आ चुकी थी।
दोनों मक्खियों ने खिता टिड्डे को अलविदा कहा ईल्ली के जाने से खिता दुखी होने लगा इस पर वह बोली, ‘‘जीवन रहा तो फिर कभी मिलेंगे खिता। मित्र से मिलने पर खुशी होती है तो बिछुड़ने पर दुख भी। जिसे हमें झेलना ही होगा। शायद जीवन इसी का नाम है।’’ कहती हुई ईल्ली ने मुस्कुराने की नाकाम कोशिश की।
एक छोटी मक्खी की इतनी बड़ी बात सुन खिता ने भरे नेत्रो से ईल्ली को विदा दी।
घर पहुंच कर ईल्ली नानी के साथ अपने व्यापार में व्यस्त हो गई। सुबह जल्दी ही घर से निकलती थी और अंधेरा होने से पहले घरों को लौटती थी।
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शुक्रवार, 6 नवंबर 2009
खिता से एक मुलाकात

गतांक से आगे -
इतने में नौकरानी मक्खी ने आकर सूचना दी कि, ‘‘आपसे मिलने एक टिड्डा आया है। वह आपसे कुछ खुफिया बात करना चाहता है।’’ इस पर रानी मक्खी ने उसे अन्दर भेज देने का आदेश दिया। नौकरानी मक्खी ने टिड्डे को अन्दर भेज दिया। सिर झुकाकर टिड्डा बोला-
‘‘नमस्ते रानी मक्खी। मैं अफ्रीका का प्रवासी यूथी टिड्डे दल का नायक ‘खिता’ हूं। हम लोग फसलों पर आक्रमण करने की तैयारी कर रहे है। चूंकि यह आपका क्षेत्र है इसलिए आपको सूचना देना आवश्यक समझा गया।’’
मान्य खिता, तुम फसलों पर आक्रमण क्यों करना चाहते हो? जानते नहीं आज के वैज्ञानिक युग में तुम्हें मार भगाने के कई तरीके ढूंढ लिए गये है। वे लोग तुम्हें मारने के लिए वायुयान से जहरीले कीटनाशकों का छिड़काव कर सकते है। जिससे न केवल तुम्हें बल्कि हमें भी खतरा रहेगा।’’ नानी मक्खी कुछ रूककर आगे बोली बेहतर यहीं है कि तुम चले जाओ। वर्ना तुम्हारे साथ हम भी मारी जायेंगी। क्योंकि तुम्हारी जितनी तेज गति से हम नहीं भाग सकती।
यह सुन खिता बोला, ‘‘रानी मक्खी हमारी विवशता को समझो। इस बार वर्षा अच्छी होने से फसलें अच्छी हुई है। हरी-हरी पत्तियों का पर्णहरित हमें बहुत पसन्द है। हमारा दल कल ही खेतों की ओर कूच कर जायेगा। और संभावना है कि दो तीन दिन में धावा बोल देगें। तुम लोग घरेलू मक्खियां हो बस्ती की ओर भाग जाना, खेतों की ओर मत जाना।’’
‘‘तुम्हारे इस आक्रमण से मेरा तो सारा व्यापार ही चौपट हो जायेगा। मैं कैसे अपने कीटाणुओं को जहरीले कीटनाशकों से बचा पाऊंगी। ईल्ली बेटी तुम ही समझाओ इसे कुछ।’’ रानी मक्खी ने ईल्ली की ओर देखकर कहा। इस पर ईल्ली ने खिता से कहा-
‘‘खिता क्या तुम 10-15 दिन नहीं ठहर सकते। प्लीज मेरे खातिर खिता वर्ना हमारे अण्डे भी बेकार हो जायेगे और हमें कई ट्रक कीटाणुओं का नुकसान होगा सो अलग।’’ ईल्ली ने खिता से इतने मोहक ढंग से आग्रह किया कि खिता इनकार नहीं कर सका।
‘‘सुन्दरी ईल्ली, तुम सुन्दर ही नहीं विनम्र भी हो। विनम्र स्वभाव वाला दूसरों का मन जीत सकता है। तुम्हारी बात मुझे स्वीकार है।’’ इतना कहने के बाद खिता उड़ने को हुआ किन्तु ईल्ली ने उसे शर्बत पिलाना चाहा तो नानी ने टोक दिया।’’ भला टिड्डे कहां जानते है मीठा शर्बत पीना वो तो बस चबर-चबर हरी पत्तियां चबाना जानते है। जानवरों की तरह।’’ कहकर हो! हो!! कर नानी हंस पड़ी ईल्ली को नानी का बेसमय हंसना बिल्कुल अच्छा नहीं लगा।
खिता के बात मान लेने से यूथी टिड्डी दल के कारण आया संकट एक बार टल चुका था। ईल्ली और नानी फिर भविष्य की योजनाओं में व्यस्त हो गई। आज उन्हें कई ट्रक कीटाणुओं के कच्ची बस्ती में खाली करने थे। ट्रक के काफिले के साथ वह अपने माल को ले कच्ची बस्ती की ओर निकल पड़ी।
वहां उन्होंने पेचिश, तपेदिक और कुष्ठ रोगों के कीटाणुओं की खूब बिक्री की मुंहमांगी कीमत पर उन्होंने टाईफाईड के कीटाणु बेचे। उनके पास अभी काफी माल था किन्तु शाम होने से पहले उन्हें अन्य जगह भी कीटाणुओं को पहुंचाना था। अत: सभी कीटाणुओं को कोलोनी बसा लेने का आदेश दे वह ट्रको का काफिला लेकर आगे चल दी।
अच्छी जगह पाकर कीटाणु भी बहुत खुश थे। काफी समय से अच्छे वातावरण और भोजन के अभाव में खोल में बंद जीवन काट रहे थे। अब वह फटाफट अपनी संख्या बढ़ाकर आबादी बढ़ा लेंगे। विभिन्न तरह की दवाओं के आने से उनके जीवन को कई खतरे थे। अक्सर उनके बीच आयोजित गोष्ठियों में इसी विषय की चर्चा रहती - उन्हें चिन्ता थी कि यदि यही हाल रहा तो एक दिन वे समूल नष्ट हो जायेगें।
ऐसे में मक्खियां उन्हें हमेशा दिलासा देती। वे सब मक्खियों के आभारी थे वे न होती तो भला वे एक जगह से दूसरी जगह कैसे पहुंच पाते।
अगले अंक में पढे़ - एक दुर्घटना