बुधवार, 5 मई 2010

उड़ान


महानगर


---ये हैं हमारे महानगर। जिसकी गोद में उग आया है कंक्रीट का समंदर। विशालकाय इमारते और उनमें जगमगाती रोशनी का भंवर। किसी स्वप्नलोक की भांति खींचती है आदमी को। अपने अंदर असीम आर्कषण शक्ति लिए है ये महानगर। जो भी अपने सपने लेकर यहां आया है उसने पाये है।
---भागती दौड़ती जिन्दगी यहां की न रूकती है न कभी थकती और न ही कभी ठहर कर देखती है। लक्ष्मी पुत्रों की रमणीय स्थली बने ये महानगर दिन दूनी और रात चौगुनी रफ्तार से बढ़ते जा रहे है। गांव, नगर, कस्बे सबकुछ इसमें समाहित होते जा रहे है।
---हमारा बहुत कुछ बदल कर रख दिया है इन महानगरों ने। आदमी, आदमी ना रहा गोया मशीन का पुर्जा हो गया। शोर और रफ्तार के बीच दम तोड़ता बचपन आज भी यहां का शा्श्वत सत्य है। बचपन रीतता गया और तरूणाई लुट गई। कभी न खत्म होने वाली यह दास्तान महानगर की छाती पर पड़े फफोले की भांति आज भी दर्द से टीसती है।
---अगर सत्य कहीं छिपा है इस महानगर में तो ठीक उसी तरह, जिस तरह नारियल के खोल के भीतर का पानी। आज भी.....उसी तरह.....जिस तरह.....बचा है आदमी के आंख का पानी। कहीं अनकहीं, गढ़ीं अनगढ़ीं दास्ताओं के बीच की है ये कहानी -



बरसों पहले की बात है- मैं साबरमती नदी के किनारे बने ‘सुपर कॉम्पलेक्स’ के ‘जी’ ब्लॉक में रहती थी।
अभी मैं यहां नई-नई थी। अड़ौस पड़ौस किसी को इतना पहचानती नहीं थी। अपने पास वाले फ्लैट में कौन रहता है? यह भी मुझे मालूम नहीं था।
ठीक सामने आश्रम रोड के उस पार मेरा ऑफीस था। ऑफीस पहुंचने के लिए मुझे नौ बजे घर से निकलना होता था।
जब मैं अपने फ्लैट को बंद कर रही होती तो अक्सर एक बच्चा अपनी मां के साथ कूड़ा उठाता नजर आ जाता। (उसे बच्चा कहना भी गलत होगा। वह किशोरवय पकड़ चुका था। बारह तेरह साल के आसपास उसकी उम्र होगी। और इस उम्र के बालक को किशोर कहते है)
उसकी मां उसे ‘दल्ला’ कहकर पुकारती थी। जब मैं ऑफीस जाने के लिए फ्लैट से निकल रही होती थी तब दल्ला कचरे का बड़ासा डिब्बा उठाये.....
उठाये कहना भी गलत होगा क्योंकि वह उसे सीढ़ियों से घसीटता हुआ नीचे उतारता था। घसीटने से पैदा होने वाला शोर बड़ा कर्कश और कान फोड़ू होता। और वह इस सबसे बेखबर हर सीढ़ी से डिब्बा कूदाता, घसीटता हर माले पर रूकता। जहां से डोर बेल बजा बजाकर हर फ्लैट का कचरा जमा करता जाता।
नाटे कद का, मैले कपड़े पहने स्याह वर्ण वाला दल्ला, कई दिनों का बिना नहाया हुआ अपनी मां के साथ काम में लगा हुआ नजर आता। उसकी मां भी उस जैसे गंदे और फटे वस्त्रों में कभी केम्पस के लम्बे चौड़े परिसर को बुहारती नजर आती थी। तो कभी कॉम्पलेक्स के बाहर बने ‘टी स्टॉल’ पर मां-बेटे चाय सुड़कते नजर आते। वे मुझे और मैं उन्हें पहचानने लगी थी।
अगली पोस्ट में दलीचन्द -

5 टिप्‍पणियां:

  1. अगर सत्य कहीं छिपा है इस महानगर में तो ठीक उसी तरह, जिस तरह नारियल के खोल के भीतर का पानी। आज भी.....उसी तरह.....जिस तरह.....बचा है आदमी के आंख का पानी।
    खरा और सच्चा अनूठा - सामंजस्य - आभार

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  2. भाग दौड़ के खेल में आदम बना मशीन।
    भाव सदा कुछ लोग में इसका मुझे यकीन।।

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    www.manoramsuman.blogspot.com

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  3. blog me bhi agli kisht ka entzaar, wah! sweekaar. hum dalla k dalichand banne ka entzaar karenge.

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  4. महानगर में जहाँ इंसान अपने सपनों को पूरा करता है ,वहीँ वह एक मशीन बनकर रह जाता है. उसके भीतर ईश्वर प्रदत्त इंसानियत भी धीरे धीरे ख़त्म हो जाती है.अपने ब्लॉग पर किशोर उपन्यास प्रकशित करने का बीड़ा उठाकर आपने अत्यंत ही सराहनीय कार्य किया है जिसके लिए आपको बहुत-बहुत बधाई !

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