शुक्रवार, 7 मई 2010

दलीचन्द

मुझे समझ नहीं आया था ये ‘बाड़ू’ क्या होता है? पहले पहल तो मैंने मना कर दिया। फिर उनके हाथ में भोजन के लिए बर्तन देख और कुछ दूसरे फ्लैट से भोजन लेते देख सहज अनुमान लगाया कि यह खाना मांग रहे है। मैंने देखा कोई बचा हुआ तो कोई सुबह का बना बासी खाना उनके बर्तनों में डाल रहे है। मैं भी उनके बर्तनों में खाना उलटने लगी थी। जैसा कि दूसरे फ्लैट वाले कर रहे थे। पर ऐसा करने पर मन में एक अजीब सा असंतोष होता-
‘दूसरो का कूड़ा ढ़ोओ, बुहारो, गन्दे रहो और भोजन बासी पाओ।’ मेरा मन अजीब सी दुविधा से घिर आता। ‘मैं दिया करूंगी ताजा खाना। शाम को थोड़ा खाना ज्यादा बना लिया करूंगी। थोड़ा उनके लिए भी बनाऊंगी। ये भी गर्म खाने का स्वाद चखे।’
द्वार की घंटी बजी। मैंने दरवाजा खोला। देखा वहीं मां बेटे। वही बर्तन। वहीं बाडू की पुकार। मैं जैसे इसी इंतजार में बैठी थी। गई और फटाफट खाना ले आई। क्योंकि मैंने बनाया था थोड़ा अधिक। अलग से निकाल भी था उनके लिए। मैं गर्म खाना ले आयी तो उसने बर्तन आगे बढ़ा दिया। बर्तन में पहले से खाना भरा हुआ था। मेरे हाथ रूक गये -
‘‘क्या दूसरा बर्तन नहीं है तुम्हारे पास। यह गर्म खाना है।’’ पहली बार उनसे संवाद स्थापित करते हुए मैंने कहा। वो कुछ अचकचाया। उसकी मां बोली - ‘‘दीदी इसी में डाल दीजिये।’’
‘‘कल दूसरा बर्तन ले आना गर्म खाने के लिए।’’ मैंने उसे हिदायत देते हुए कहा।
दूसरी शाम वह फिर आये थे बाडू लेने। नित्यकर्म की भांति। अलग बर्तन तो नहीं थे उनके पास। दल्ला ने जेब से मुड़ी-तुड़ी पॉलीथीन थैली निकाली। वह उसे आगे बढ़ाकर बोला - ‘‘मासी गर्म खाना इसमें डाल दीजिये।’’
‘‘ओह! थैली। पॉलीथीन तो नुक्सान करता है।’’
वह चुप। मुझे उपाय सूझा।
‘‘ठहरो’’ मुझे याद आया मेरे पास पुराना टिफिन है। मैंने उसमें भर कर खाना दे दिया। उसके चेहरे पर खुशी के भाव देख मेरा मन प्रसन्नता से भर आया।
अब जब भी मैं काम पर जा रही होती या किसी काम से वापस लौट रही होती उनसे नजरे मिल जाती तो दोनों मां बेटे मुस्कुरा उठते। आते जाते नमस्ते भी करने लगे। मुझे भी अच्छा लगता। अपरिचय के केन्द्र में एक छोटासा परिचय। इस विशाल कॉम्पलेक्स में कोई तो है जो मुझे पहचान रहा है। कितना अजनबीपन पसरा हुआ है यहां।
ये महानगर की अपनी जीवनशैली है शायद। मैं किसी को आपस में बात करते हुए नहीं देखती। सब अपने हाल में मस्त। अपने हिसाब से व्यस्त। कोई किसी से कुछ नहीं पूछता। कोई कुछ नहीं कहता। बस चारों ओर लोगो की भीड़। हजूम का हजूम है। या फिर रेला है। कहां से आ रहा है और कहा समाता जा रहा है। मरूधरा के रेतीले धोरे की तरह। बस फर्क इतना कि वहा बालू है और यहां मानव। इस भीड़ में यह अकेलापन और अजनबीपन। कभी-कभी मन में डर या झिझक भी पैदा करता।
मैं एक कस्बाई क्षेत्र से हूं। जहां का माहौल यहां से बिल्कुल परे है। वहां हर कोई हर किसी को पहचानता है। रास्ते में मिल जाने पर अभिवादन के साथ लगे हाथ कुशलक्षेम भी पूछ ली जाती है। वहां भी लोग मंदिर जाते है और यहां भी। कितना अंदर है यहां और वहां के परिवेश में। वहां के मंदिर पूजा अर्चना और आध्यात्म के साथ सूचना आदान प्रदान के केन्द्र होते है। जहां तमाम प्रकार की सूचना मिल जाती है। जन्म, मृत्यु और परिणय की। कहां किसके यहां जन्म हुआ है और किसकी मौत हुई। किसका विवाह है और किसका संबंध तय हुआ है। बड़ी बातांे से लकर छोटी मोटी बातों तक। पशु पक्षी से लेकर पेड़ पौधे तक। बस्ती वालों से लेकर पूरे नगर तक। अमीर से लेकर गरीब तक। हर किसी को हर किसी में दिलचस्पी कहीं कोई बेगाना नहीं।
ये महानगर कैसे बसे होंगे? गांव-नगर के लोगों ने ही तो मिलकर बसाया होगा इसे। बाद में देश के कोने कोने से आये होंगे रोजी रोटी की तलाश में। और फिर सब यहीं बस गये। विभिन्न समुदाय, भिन्न खानपीन, वेशभूषा, भाषा और संस्Ñति। आचार-विचार सबकुछ अलग-थलग। कितना दिलचस्प है।
मैं सोचती - ‘एक दूसरे के बारे में जानने की कितनी उत्सुकता होती होगी। मेरे कस्बे में तो यहीं होता है। कोई भी नया व्यक्ति आ जाय। पंचायत आ जुड़ती है। उसे कभी अनजानापन तो लगता ही नहीं। देर सवेर वे उसे अपना बना ही लेंगे।’
जब से मैं यहां आयी हूं मेरी कस्बाई सोच और यहां यह महानगर, दोनों में घमासान मचा रहता।
छुट्टी का दिन था। मुझे ऑफीस नहीं जाना था। देर से उठी तो सारे काम ही देर से शुरू हुए। चाय के कप के साथ ताजा अखबार लिए मैं बालकनी में आ बैठी। बालकनी से नीचे गार्डन की ओर नजर गई। देखा, दल्ला झूला झूल रहा था। कॉम्पलेक्स में यह बच्चों का गार्डन था। जिसका पूरा परिदृश्य मेरी बालकनी से नजर आता था। गार्डन में झूले के साथ कई चढ़ने-उतरने-फिसलने व संतुलन साधने जैसे खेल उपकरण लगे हुए थे। इन्हें देख मुझे अपना बचपन याद हो आता। मेरी चाय खत्म हो चुकी थी और अखबार भी मैं टटोल चुकी थी। इच्छा हुई नीचे गार्डन में जाऊं। वहां कुनकुनी धूप खिली हुई थी। गुलाबी ठण्ड में सुबह की धूप का आनंद लेने के लिए मैंने फ्लैट को लॉक किया और लिफ्ट से नीचे चली आयी।
देखा दल्ला अब फिसलपट्टी पर चढ़ा हुआ था। फिसलने के लिए। उसकी मां परिसर बुहार रही थी। सामने लगी गार्डन की बेंच पर मैं जाकर बैठ गई। पूरा परिसर शान्त छुट्टीमय था। हर रोज की हलचल इन लम्बे टॉवरों में दुबकी निद्रामग्न थी। मैंने दृष्टि घुमाई, चारों ओर ऊंचे ऊंचे टॉवर। जिनमें अनगिनत फ्लैट। फ्लैट में कितनी बालकनी और बालकनी में सूखते टंगे हुए असंख्य कपड़े।
‘कितने लोग रहते होंगे यहां? कितने परिवार होंगे? कितने बच्चे होंगे? एक के बाद एक प्रश्न कौंध रहे थे मन में। इस पूरे कॉम्पलेक्स में तो मेरा पूरा गांव समा जाय। क्या हो जब वे सब एक जगह, एक छत के नीचे हो तो ? आपस में बतियाने में शायद खानापीना ही भूल जाय। तंद्रा में खोये हुए कई विचार आ जा रहे थे।
‘‘नमस्ते मेडमजी। कैसी है?’’
‘‘अच्छी हूं।’’
बात का सिलसिला खत्म हो चुका होता अगर वह वहां मेरे पास आकर दूब पर नहीं बैठ गई होती।
‘‘कहां रहती हो?‘‘ मैंने बात के क्रम को आगे बढ़ाया।
-शेष अगली पोस्ट में

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