शुक्रवार, 28 मई 2010

उसने कहीं दूर किसी ओवर फ्लाई की ओर इशारा करते बताया कि उसकी छाया में झोपड़ी तान रखी है। वह अपने घर गांव के बारे में बताने लगी-


पहले जब वह छोटी थी तब इस महानगर से सटे गांव में रहती थी। बहुत छोटी थी तब ही उसकी मां गुजर गई। पिता ने उसकी शादी दल्ला के पिता से करा दी। शादी के समय उसकी उम्र नौ-दस साल थी। शादी के बाद काम की तलाश उन्हें इस महानगर में खींच लायी। गांव में खेती जमीन थी। पर सारी जमीन महाजन खा गया। पैसा लिया था उससे खेत गिरवी रखकर। जब खेत न रहे तो वह इस महानगर में चले आये। बहुत भटके। फाके भी रहे। पर धीरे धीरे गुजारा होने लगा। कभी आधे पेट भोजन मिला तो कभी दूसरो के आगे हाथ भी फैलाना पड़ा। तीन बच्चों में दल्ला सबसे छोटा है मेडमजी, चाहूं कि यह पढ़लिख जाय।
- चाहती हो तो पढ़ने भेज दो।
-आप ही कहीं कोशिश करो। ये स्कूल जाने लगे तो मैं आपका बड़ा अहसान मानूं दीदीजी।
उसने अपनी साड़ी का पल्लू आंखों से लगाते हुए कहा।
-इसकी उम्र कितनी है?
-ग्यारह बारह का हो गया होगा।
-अक्षर वगैरह लिख लेता है?
दल्लू · ऐ! दल्लू · · मां ने पुकारा तो दल्ला झूला छोड़ इधर चला आया।
-हाथ जोड़ मेडमजी को।
मां के कहने पर उसने अभिवादन किया। बता मेडमजी क्या पूछे है? जो पूछे उसका जवाब दे।
‘‘अक्षर वगैर लिख लेते हो?’’ मैंने प्रश्न दोहराया। वह मुंह ताकता कुछ देर खड़ा रहा। फिर ‘ना’ में गर्दन हिला दी।
ए.बी.सी.डी...एक दो तीन चार कुछ तो आता होगा। मेरे पूछने पर उसकी गर्दन फिर ना में हिल गई।
ओह! मेरे मुंह से निकल पड़ा। मैं सोच में पड़ गई । इसकी उम्र इतनी छोटी भी नहीं की इसे कहीं पहली क्लास में दाखिला मिले। मुझे सोचता देख वह बोल उठी -
‘‘मेडमजी आपका बड़ा उपकार होगा। यह थोड़ा पढ़लिख जाय तो कम से कम इंसान बन जायेगा। इसके बाप के साथ हमारा जीवन भी कूड़ा उठाते गुजर गया पर ये तो... ये काम ना करें। पर पढ़ेगा तो ही छुटकारा होगा।’’
‘‘बात तो तुम्हारी ठीक है पढ़ेगा तो ही सच्चे मायने में इंसान बनेगा।
‘‘पढ़ाई कर ले तो कहीं बही खाता लिखने का काम मिल सके है मेडमजी?’’ उसने आशा से मुझे देखा।
‘‘हां हां क्यों नहीं। पढ़ेगा तो बही खाता लिखने का क्या इससे भी ऊंचा काम कर सके है।’’
‘‘बस यहीं चाहू हूं मेडमजी। जरा लायक आदमी बन जाय। पहली दो तो लड़कियां थी सो चल गया। नहीं पढ़ी तो भी शादी कर दी और वो ससुराल चली गई। पर ये तो लड़का है। पढ़ेगा तो....कहीं अच्छे से काम करने लगे....।
‘‘वो तो ठीक है दल्ला की मां....’’
‘‘मेडम जी हूं तो लच्छू की घरवाली, पर जिसे देखो वहीं मुझे दल्ले की मां कहकर ही पुकारे है।’’ अपने बेटे को प्यार से सहलाते वह गर्वित भाव से बोली। मैं भी हैरान हुई उसे देखती रह गई। पहचान भी दे रही है पर अपने नाम से नहीं। मेरी तंद्रा भंग करते हुए वह बोली-
‘‘इसके बाप को भी बड़ा चाव है दल्ला पढ़े। उसने तो एक साहब से भी बात की इसके लिए। वो इसे पेट्रोल पम्प पर नौकरी लगवा देगा। बस थोड़ा हिसाब किताब करना सीख लो तो मेरा दल्ला पम्प पे काम करा करें। टोपी और वर्दी में सजा हुआ।
मैं देखा कोई स्वप्न संसार उसकी आंखों में फैलता हुआ चेहरे पर पसर गया। आशा भरा सुख उसकी आवाज में घुल आया।
‘‘मेडमजी...’’
‘‘ठीक है।’’ मैंने स्वीकारा। दल्ला को मैं पढ़ाऊंगी।’’
वो खिल उठी। दल्ला पास में खड़ा इस सबसे बेखर उदासीन सा इधर उधर ताक रहा था। कॉम्पलेक्स की आवाजाही बढ़ गई थी। मैंने घड़ी पर नजर डाली। पूरा एक घंटा व्यतीत हो चुका था। मैंने उठते हुए कहा-
‘‘ उधर आश्रम रोड के उस पार मेरा ऑफीस है। दल्ला को वहां भेज देना। मैं उसे पढ़ाऊंगी। पहले थोड़ा अक्षरज्ञान हो जाये फिर उसके स्कूल की बात तय होगी। इस उम्र में अब उसे कोई भी पहली क्लास में लेने को तैयार नहीं होगा। पहले उसे कुछ पढ़ना लिखना सीखना होगा। उसने भी स्वीकार लिया कि वह कल से उसे मेरे पास भेज देगी पढ़ने के लिए।
‘‘हां जरा साफ सुथरा आना पढ़ने के लिए। नहाकर- मैंने उसे हिदायत दी। कॉपी पेंसिल किताब तो मैं ला दूंगी।’’ कहकर मैं चलने को हुई। वह बहुत खुश थी। मेरे पीछे-पीछे मेरा अनुसरण करने लगी।
‘‘कल बारह बजे।’’ मैंने कहां। ‘‘और हां अब से दल्ला नहीं इसका नाम होगा- ‘‘दलीचंद’’।
एक सपना जो अभी दल्ले की मां की आंखों में तैर रहा था। उसका एक रेशा मेरी आंखों में भी समा गया। ‘एक अच्छा काम। एक नेक काम होगा मुझसे। अगर इसे पढ़ा सकी तो एक जीवन संवर जायेगा।’ आनंद से भरा मन खुशी देने लगा। इस स्वपनजाल को लिए मैं लिफ्ट में बंद हो ऊपर चली आयी ।

अगली पोस्ट में - रंगो के साथी

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