बुधवार, 20 जुलाई 2011

घड़ी जब ग्यारह बजा रही थी। तो दलीचंद सामने था। नहाया हुआ। साफसुथरा। बालों में कंघी किये हुए दमकता हुआ मानो बरखा के बाद धूप खिली हो।
‘‘आ गये तुम!’’ मुस्कान से उसका स्वागत करते हुए मैंने कहां। प्रत्युक्तर में उसने गर्दन हिला दी।
‘‘पढ़ोगे?’’ मैं आश्वस्त होना चाहती थी। उसने दुबारा ‘हां’ में गर्दन हिला दी।
ठीक है मैंने मेज की ड्रावर खोलते हुए एक नई काॅपी पेन्सिल निकाली। शाम को ही उसके लिए खरीद कर लायी थी। काॅपी पेन्सिल उसकी ओर बढ़ाते हुए कुछ कहना चाहती थी तभी ख्याल आया काॅपी पर इसका नाम तो लिख दूं।
‘‘तुम्हारा नाम लिख देती हूं।’’
नुकीली पेसिंल से मैंने उसका नाम सुन्दर अक्षरों में लिख दिया। अंग्रेजी लिपि में DLICHAND । वह देख रहा था। उसकी नजरे कौतुकी थी। मैंने महसूस किया कि उसे अच्छा लग रहा है। पहला पेज खोल उस पर कुछ आड़ी, तिरछी व सीधी रेखाएं खींचते हुए मैंने उसे समझाया -
‘‘ये देखो - ये सीधी, ये आड़ी और ये तिरछी रेखा है। इसे तुम भी बनाओ। यहां बैठकर।’’ पास की कुर्सी की ओर इशारा करते हुए मैंने कहा।
उसने काॅपी पेसिंल उठाई और उसे देखने लगा। मैंने उसे बैठने और रेखाएं खींचने के लिए फिर से कहा और अपने काम में लग गई।
मेरे सामने कागज फैले पड़े थे। गाढ़े पीले नीले रंगों को उठाया और अपने काम में मशगूल हो गई। मेरे हाथ से तेज मेरा दिमाग दौड़ रहा था। रंग आकृतियां बनाने लगे। धीरे धीरे एक पूरा आकार बनकर तैयार हो चुका था। मेरी एकाग्रता भंग हुई तो पास बैठे दलीचंद पर निगाह गई। वह मुझे व मेरे काम को देख रहा था अपलक। उसकी काॅपी में केवल एक सीधी रेखा खींची हुई थी।
‘‘अब तक केवल इतना ही किया...? देखो मैंने तो अपना पूरा एक काम कर लिया।’’ अपना काम उसे दिखाते हुए मैंने कहा।
‘ये क्या है?’ उसने रंगो की ओर इशारा करते हुए पूछा।
‘‘कलर्स है। तुम्हें चाहिये?’’
मैंने देख रही थी कि वह ललचायी नजर से उन्हें देख रहा था। मेरे पूछने पर उसने हां तो नहीं की पर उसके चेहरे पर खुशी का भाव था। मैंने उसे लाल रंग की पेंसिल थमाते हुए कहा - ‘‘लो इससे बनाओ सारी सीधी रेखा।’’
उसने पेंसिंल ले ली। अपनी पतली अंगुलियों के बीच पेंसिल फंसाये वह रेखा खींचने लगा। लगभग दो मिनिट से भी कम समय में उसने सारी सीधी रेखाएं खींच दी थी।
‘‘वाह! खूब। अब ये नीले रंग की पेंसिल लो। सारी आड़ी रेखाएं इससे बना दो।’’ रंग भरी पेसिंल पकड़ते हुए उसमें उत्साह समा गया और उसने फटाफट अपने काम को अंजाम दे दिया। अब बारी हरे रंग की तिरछी रेखाओं की थी। मुझे कुछ कहना नहीं पड़ा। दलीचंद के हाथ फुर्ती से बात पकड़ रहे थे। उसकी बुद्धी पर मुझे संतोष हुआ।
‘‘तुम शीघ्र ही अक्षर सीख लोगो। होशियार हो।’’ अगले पेज पर मैंने अंग्रेजी लिपि का ‘ए’ बनाकर उसे समझाया। ए को मैंने तीनो ही रंगों से डिजाईन किया। कुछ समय लगा पर दलीचंद की गाड़ी दौड़ पड़ी रंगों की डगर पर अक्षरों की सवारी लिए हुए।
यह एक अखबार का कार्यालय था जहां मैं विज्ञापन विभाग में काम करती थी। कई विज्ञापन हर रोज के आते थे। उन्हें सेट करना, डिजाईन करना, रंग,भाषा और लिपि देखने संबंधित कई कामों को गहराई से देखना परखना और जांच करना पड़ता था। पसंद नहीं आने पर नये लुक देना रोज पानी खोजने जैसा दुरूह कार्य काम है। परन्तु मेरी दिलचस्पी शुरू से ही सजृन और कला में रही है तो मैं यह काम बखूबी कर लेती थी।
यह मैं जिस समय की बात कर रही हूं उस समय कम्प्यूटर का इतना चलन नहीं था। ज्यादातर काम प्रिंटिग के पारम्परिक तरीको से होता था। अतः मशीनो के बजाय मानव श्रम से काम पूरे किये जाते थे। आज तो अत्याधुनिक छपाई मशीने आ गई है। डिजाईन का अधिकांश कार्य भी कम्प्यूटर के एक कमांड द्वारा सम्पन्न हो जाता है।
उस समय मुझ जैसे सृजन क्षमता वाले डिजाईनर कम ही हुआ करते थे। मैं अपने काम में भरपूर नये प्रयोग करती थी। यहां सभी मेरे काम से खुश थे। थोड़े ही दिनों में मैंने अपने लिए अच्छी जगह बना ली। उस दिन दलीचंद जब मुझे पूछता हुआ कार्यालय आया था तो चपरासी ने उसे मुझ तक पहुंचा दिया था।
चपरासी चाय ले आया।
‘‘चाय पीओगे?’’ मैंने दलीचंद से पूछा। उसने जवाब नहीं दिया। जिसे मेंने हां समझा। उसके लिए भी चाय मंगवा ली। चाय खत्म होने के बाद मैंने पेंसिल उठाई और अगले पेज पर गोला बना दिया। गोला बनाकर काॅपी दलीचंद की ओर बढ़ा दी।
तभी सूचना आयी, ऋषभ सर बुला रहे है। वे यहां सब एडीटर अर्थात उपसंपादक है। अखबार का ले-आऊट वे ही तैयार करते है। मेरे द्वारा तैयार विज्ञापन के एप्रूव करने का जिम्मा भी उन्ही का था। मैंने संबंधित फाईल अपनी टेबिल से उठाई और सर के पास चली गई।
मैं जब वापस लौटी तो एक घंटा गुजर गया था। दलीचंद खिड़की पर खड़ा दौड़ती सड़क को निहार रहा था।
‘‘काम कर लिया?’’ मैंने उसकी काॅपी देखी। वह गोले से आधा पेज भर चुका था।
‘‘पूरा क्यों नहीं किया?’’ अभी तो तुम्हें हाफ सर्कल भी बनाना है।’’ वह मेरा मुंह देखने लगा।
‘‘कोई कठिनाई है?’’ बोला तो वह कुछ नहीं पर अनमना सा आकर फिर मेज के किनारे स्टूल पर बैठ गया। मेरे बताये अनुसार वह काम करता रहा। इस तरह उसने अंग्रेजी के तीन अक्षर ए बी और सी सीख लिया।
लंच का समय होने वाला था। इसे भी भूख लगी होगी। ‘‘टिफन लाये हो अपना?’’ वह हां में शर्माता हुआ मुस्कुराया।
‘‘खा लो।’’
मेरे कहने पर उसने अपने निकर की जेब में हाथ डाल कपड़े की पोटली निकाल ली। मैं देख रही थी-

बेसब्री से पोटली का खोलना।
लुकी बाटी का निकालना।
चटनी के साथ कौर का चबाना।
क्षुधा शान्ति भाव का पसरना।
लौटा भर पानी का पीना
तृप्त होकर डकार का लेना।
चेहरे पर सन्तुष्टि का तैरना।

‘‘अब तुम्हारी छुट्टी।